उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की ओर से भूस्खलन जोखिम न्यूनीकरण योजना के तहत उत्तराखंड में भूस्खलन न्यूनीकरण और जोखिम प्रबंधन विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया गया। आयोजित कार्यशाला में तमाम वैज्ञानिको प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों और आपदा को लेकर अपने अपने विचारो को साझा किया। कार्यशाला का उद्घाटन करते हुए आपदा सचिव रंजीत कुमार सिन्हा ने कहा कि प्रदेश में भूस्खलन एक गंभीर समस्या है, क्योंकि भूस्खलन के चलते हर साल जान-माल का नुकसान होता है।
साथ ही कहा कि भूस्खलन या फिर अन्य किसी आपदा को समझने के लिए, आपदा का सामना करने के लिए और पुख्ता तैयारी के लिए तमाम विषयों को एक समग्र दृष्टिकोण से समझना होगा, तभी राज्य को आपदा सुरक्षित प्रदेश बनने की कल्पना को सार्थक कर पाएंगे। सड़क काटने के बाद सिर्फ पुश्ता लगाने से काम नहीं चलेगा। बल्कि, वहा के भूविज्ञान को समझना होगा, भू-भौतिक विज्ञान को समझना होगा और इंजीनियरिंग के साथ जल विज्ञान एवं मिट्टी की संरचना को भी समझना होगा। कुलमिलाकर, भूस्खलन का सामना करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत है।
भूस्खलन एक प्राकृतिक आपदा जैसी दिखाई देती है, लेकिन कहीं न कहीं इसके पीछे इंसानों की ओर से उत्पन्न परिस्थितियां भी मुख्य कारण हैं। ऐसे में विकास के साथ पर्यावरण का संरक्षण भी बहुत जरूरी है। जिससे विकास और पर्यावरण के बीच एक संतुलन स्थापित होगा, तभी जाकर आपदाओं का सामना कर पाएंगे। पहाड़ों के ढलानों को जब किसी विकास संबंधित गतिविधियों के लिए डिस्टर्ब किया जाता है तो उसी समय उसका उचित ट्रीटमेंट भी किया जाना जरूरी है, ताकि भविष्य के दौरान इस क्षेत्र में आपदा के लिहाज से होने वाले खतरे को ठीक ढंग से किया जा सके।
प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों पर जब भी कोई निर्माण कार्य हो तो उससे पहले उसे स्थान की सॉयल बीयरिंग कैपेसिटी का अध्ययन किया जाना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो आपदा और उसके प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। प्रदेश में अधिकतर भूस्खलन की घटनाएं सड़कों के किनारे हो रही हैं। लिहाजा ये स्पष्ट है कि सड़क निर्माण के कारण पहाड़ों का स्लोप डिस्टर्ब हो रहा है। हालांकि, सड़कों को बनाया जाना जरूरी है, लेकिन ये उससे भी जरूरी है कि उसी समय स्लोप का वैज्ञानिक तरीके से उचित ट्रीटमेंट करा लिया जाए।
आपदा सचिव रंजीत कुमार सिन्हा ने कहा कि इनसार InSAR (Interferometric Synthetic Aperture Radar) भूस्खलन के दृष्टिकोण से अर्ली वार्निंग को लेकर सबसे आधुनिकतम तकनीक है। यह तकनीक सेटेलाइट आधारित और ड्रोन आधारित है। सेटेलाइट आधारित तकनीक का इस्तेमाल करके भूस्खलन होने से पहले वार्निंग मिल सकेगी। इस आधुनिक तकनीक को किस तरीके से इस्तेमाल में लाया जा सकता है, इसको लेकर भारत सरकार और राज्य सरकार के स्तर पर विचार-मंथन चल रहा है।
वही, बैठक के दौरान उत्तराखंड भूस्खलन न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र के निदेशक शांतनु सरकार ने बताया कि हेलीकॉप्टर और ड्रोन के जरिए से नैनीताल, उत्तरकाशी, चमोली और अल्मोड़ा का लीडार सर्वे जल्द शुरू होगा। साथ ही इससे प्राप्त होने वाले डाटा को अलग अलग विभागों के साथ साझा भी किया जाएगा, जिससे सुरक्षित निर्माण कार्यों को आगे बढ़ाने में काफी नमक मिलेगी। उन्होंने कहा कि भूस्खलन संभावित क्षेत्रों में रॉक फॉल टनल बनाकर भी यातायात को सुचारु बनाए रखा जा सकता है तथा जन हानि की घटनाओं को कम किया जा सकता है।
कार्यशाला के दौरान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग के डॉ. सुरेश कन्नौजिया ने कहा कि नासा-इसरो सार मिशन (निसार, NISAR) इसी साल लांच करने जा रहे है। आपदा प्रबंधन के दौरान इस तकनीकी की बड़ी उपयोगिता होगी।
इसके अलावा, भूस्खलन न्यूनीकरण के लिए भू-संरचना और स्लोप पैटर्न में आ रहे बदलावों को समझना आवश्यक है।
वाडिया भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. कलाचंद साईं ने कहा कि उत्तराखंड राज्य भूस्खलन से लिहाज से सबसे ज्यादा और संवेदनशील है। ऐसे में भूषण की घटनाओं को कम करने के साथ ही प्रभावित क्षेत्र की मैपिंग किए जाने की जरूरत है। इसके बाद इसकी जानकारी उत्तर सिटी प्लैनेट्स को उपलब्ध करवा कर सुरक्षित निर्माण कार्य के लिए कार्य शुरू किया जाएगा।
भूस्खलन की घटनाओं को कम करने के लिए सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों की मैपिंग की जानी जरूरी है और वह डाटा सिटी प्लानर्स को उपलब्ध करवाकर सुरक्षित निर्माण कार्यों को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। हिमालय बहुत संवेदनशील हैं और मानवीय गतिविधियों के कारण उन्हें काफी नुकसान पहुंच रहा है। इस पर गंभीर चिंतन जरूरी है।