चैत्रमास की मीन संक्रांति को आरंभ हुए फूल-फूलमाई , फूलदेई पर्व अब पहाड़ से लेकर मैदानों तक बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा है। नब्बे के दशक से यह खूबसूरत बाल पर्व, बढ़ते पलायन के कारण पहाड़ों से समाप्त होने लगा था। जिसके चलते समाजसेवी शशि भूषण मैठाणी ने खूबसूरत पारंपरिक बाल पर्व को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने साल 2004 में सीमांत जनपद चमोली मुख्यालय गोपेश्वर व आसपास के गांव मैठाणा, पपड़ियाणा, पाडुली, वैरागणा, देवलधार, पलेठी सहित दर्जनों गांवों में बच्चों के समूह बनाकर फूलदेई मनाने की शुरुआत की थी।
साल 2012 में उन्होंने देहरादून के 23 स्कूलों के सहयोग से देहरादून की सड़कों पहली बार फूलदेई पर्व मनाने का संदेश दिया। और साल 2014 से प्रत्येक वर्ष राजभवन और मुख्यमंत्री की देहरियों से मनाने की अनूठी परम्परा की शुरआत की। इसके बाद 2021 से मैठाणी ने फूलदेई के विसर्जन पर्व को संरक्षित करने की मुहिम को भी अभियान में शामिल किया। जिसके तहत अब प्रत्येक वर्ष मुख्यमंत्री और राजभवन के देहरी से शगुन में बच्चों को मिलने वाले पारंपरिक उपहार गेहूं, गुड़, चावल और सांकेतिक भेंट को बारी बारी पहाड़ के अलग अलग गांवों तक पहुंचाने बीड़ा भी उठाया है। विगत वर्ष वह राजभवन व मुख्यमंत्री आवास की भेंट अपने गांव मैठाणा लेकर पहुंचे थे। और इस बार उन्होंने सीमांत जनपद चमोली लासी गांव का चयन किया है। आने वाले समय में इस बाल पर्व को और भव्य बनाने का संकल्प।
फूलदेई के बाद अब मैठाणी ने ग्वालपुज्ये संरक्षण की शुरू की मुहिम….
फूलदेई संरक्षण अभियान के सफलतम उन्नीस वर्ष पूरे होने के बाद अब यूथ आइकॉन क्रिएटिव फाउंडेशन के संस्थापक व संस्कृति प्रेमी शशि भूषण मैठाणी पारस द्वारा फूलदेई विसर्जन कार्यक्रम ग्वालपूजा संरक्षण अभियान को भी शुरू कर दिया है। इस अवसर पर उत्तराखंड के राज्यपाल व मुख्यमंत्री द्वारा फूलदेई के अवसर पर भेंट किए गए गेंहू, चावल व गुड़ को देहरादून से आकर उन्होंने लासी गांव की महिलाओं व बच्चों को सौंपा। लासी में भेंट पहुंचने पर ग्रामीणों ने फूल बरसाकर स्वागत किया। जिसके बाद राजभवन व मुख्यमंत्री आवास से शगुन में पहुंची भेंट को गांव से ऊपर जंगलों के रमणीक स्थल विनायक सैण में सामूहिक भोज के साथ पकाया गया व ग्रामीणों में परसाद के रूप में वितरित किया गया।
हर ड्येळी, एक डाली” पर्यावरण संरक्षण मुहिम का भी हुआ शुभारंभ…….
शशि भूषण मैठाणी पारस ने रंगोली आंदोलन रचनात्मक मुहिम के तहत इस पर पर्यावरण संरक्षण अभियान को भी जोड़ा हुआ है। जिसे उन्होंने नाम दिया है “हर ड्येळी , एक डाली ” (हर देहरी पर एक वृक्ष)। जिसका उद्देश्य यह होगा कि प्रत्येक घर आंगन में एक वृक्ष अवश्य हो। खासकर बसंत के आगमन उस पर जिन वृक्षों में पुष्प खिलते हों, ऐसे में पुष्प वृक्षों में अमलतास, स्थलपद्म, गुलमोहर को विशेष अभियान के तहत रोपा जाएगा। साथ ही स्थानीय जलवायु के अनुकूल पौधों में बांज, देवदार, रुद्राक्ष, शहतूत, आंवला को भी रोपा जाएगा। आज लासी के विनायक सैण में चमोली पुलिस अधीक्षक श्वेता चौबे की मदद पर्यावरण संरक्षण अभियान में 21 बांज के पौधे व 15 आंवले के पौधों का रोपण सब इंस्पेक्टर पूनम खत्री, नयन सिंह कुंवर एवं महिला मंगल दल सदस्यों द्वारा किया गया।
शशि भूषण मैठाणी पारस ने बताया कि आने वाले समय में फूलफूल माई, फूलदेई पर्व बड़े व्यापक स्तर पर मनाया जाने लगेगा। तब फूलों के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण की क्षति न हो उसे ध्यान में रखते हुए अब हर घर पुष्प वृक्ष रोपण का अभियान चलाए जाने की मुहिम भी विगत वर्षों से निरंतर जारी है। यूथ आइकॉन क्रिएटिब फाउंडेशन के रंगोली आंदोलन मुहिम के तहत आगामी वर्ष 2023 के फूलदेई तक एक सौ एक गांवों में ग्रामीणों के सहयोग से फूलदेई वाटिका बनाने का लक्ष्य रखा गया है जिसे लेकर ग्रामीणों में भी खासा उत्साह है।
क्या है ग्वाल पुज्ये (ग्वाल पूजा)……..
चैत्रमास की मीन संक्रांति को हिमालयी पर्व फूलफूल माई फूलदेई के अवसर पर बच्चे घर घर जाकर देहरी पर फूल डालते हैं। इन बच्चों को इस दिन भगवान कर रूप में माना जाता है। द्वार पर आए बच्चों को चावल, गेंहू, गुड़ भेंट किया जाता है। जिसके बाद घर वापस लौटने पर, बच्चे उपहार में मिले चावल गुड़ आदि को अपनी-अपनी माताओं के सपुर्द करते हैं। माताएं उस भेंट को ईश्वर का वरदान मानकर 20 दिनों तक भगवान के समक्ष रख देती हैं और अपने घर में धन धान्य की कामना कर पूजा अर्चना करती हैं। बीसवें दिन से तीसवें दिन के बीच में कभी भी ग्रामीण एक साथ गांव से दूर जंगल अथवा छानी में जाती हैं और बच्चों को भी साथ ले जाकर उनके द्वारा फूलदेई पर एकत्र किए गए अनाज का सामूहिक भोज पकाकर ईश्वर को भोग लगाकर फिर सभी ग्रामवासी परसाद के रूप में भोज ग्रहण करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की ग्वाल बाल संग पूजा……
आज ग्वाल पूजा के दिन, जंगल में ग्वालों द्वारा सामूहिक रूप से रंग विरंगे फूलों से भगवान श्री कृष्ण का पूजा स्थल सजाया जाता है। एक बच्चे को बाल कृष्ण बनाया जाता जो जंगल में बच्चों संग खूब खेल खेलता है। बच्चे बारी-बारी बाल कृष्ण भगवान से साथ खेलते हैं, तो दूसरी ओर माताएं ग्वालों का पूजा स्थान को सजाती हैं और युवक भोजन तैयार करते हैं।
बाघ और विषैले पौधों की पूजा की जाती है……
गांव की बुजुर्ग महिला द्वारा जंगल में भगवान श्री कृष्ण के समक्ष प्रार्थना कर मवेशियों के लिए घातक जानवरों में बाघ, सांप के अलावा जहरीले घास में अंयार का आह्वाहन कर उन्हें आमंत्रित किया जाता है। फिर बच्चों में से ही अलग-अलग रूप में उक्त जानवर व घास जानवर व जहरीले घास के रूप मे अवतरित होते हैं। इनकी पूजा महिलाओं द्वारा की जाती है। सबको बारी बारी पूछा जाता है कि …..हे बाघ क्या तू मेरी गायों को खाएगा .. तो पहले वह हाँ बोलता है .. बुजुर्ग माता जले हुए ओपले व उसके धुंवे से उसको भगाती है तो फिर, जानवर खीर व पकवान मांगता है .. माता उससे वचन लेती है कि अगर तू मेरे गायों को नुकसान नहीं करेगा तो मैं खिलाऊंगी .. हंसी ठिठोली के बीच यह सब संवाद चलता है। अंत में सभी महिलाएं बाघ, सांप, व जहरीले घास अंयार की पूजा करती हैं उन्हें टीका लगाकर गांव की सीमा से बाहर जाने का अनुरोध करती हैं और भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाकर कर गांव की सुख समृद्धि की कामना करती हैं।
मनुष्य व प्रकृति के बीच, आस्था और विश्वास का है यह पर्व……..
इस आस्था में कहीं न कहीं विज्ञान का रहस्य भी समाहित है , यह सर्वविदित है कि पतझड़ के बाद रूखे सूखे पेड़ पौधे पर बसंत के आगमन के साथ ही नई – नई कोंपलें व रंग विरंगे फूल खिलने लगते हैं। यह सब भले आप हमको देखने में आकर्षक लग सकते हैं लेकिन सच यह भी है कि इनमें ऐसे वक़्त कई तरह के विषैले तत्व भी मौजूद होते हैं, पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी बसंत के वक़्त अंयार, बांज, बुरांश, खड़ीक, क्विराल आदि इत्यादि की हरी घास मवेशियों को देना वर्जित होता है। इस मौसम की हरी घास जानवरों के लिए जहर मानी गई है। चैत्रमास की मीन संक्रांति फूलदेई के 20 दिवस के पश्चात ग्वाल पूजा के दिन से मवेशियों को सभी प्रकार की घास देना शुरू कर देते हैं।